देशभर में इस साल अक्षय तृतीया का पर्व बुधवार, 18 अप्रैल को मनाया जा रहा है। हिंदू कैलेंडर के मुताबिक यह त्योहार वैशाख माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया यानि तीसरे दिन मनाया मनाया जाता है। इस पर्व को आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में इस पर्व को बहुत शुभ माना जाता है। माना जाता है इस दिन से सतयुग की शुरुआत हुई थी। वेदव्यास और भगवान गणेश ने आज ही के दिन महाभारत को लिखना शुरू किया था। इस दिन दान का विशेष महत्व होता है। इस दिन ब्राह्मणों को दान करना बहुत फलदायी माना जाता है। इस दिन घर के सामान की खरीदारी करना अच्छा माना जाता है। इस दिन सोना खरीदना बहुत शुभ माना जाता है। अक्षय का मतलब सनातन और तृतीया का मतलब तीसरा होता है। इस दिन भगवान लक्ष्मीनारायण को जौ, सत्तू, ककडी और चने की दाल अर्पित की जाती है। इस दिन गरीबों को शरबत, ठंडा दूध, चप्पल और छाता दान करना उत्तम माना जाता है।
क्यों मनाते हैं अक्षय तृतीया – यह पर्व हिंदू और जैन धर्म के लोगों द्वारा मनाया जाता है। जैन धर्म के लोग मानते हैं इस दिन भगवान परशुराम का जन्मदिन हुआ था इसलिए वह इसे परशुराम जयंती के रूप में मनाते हैं। वहीं हिंदू शास्त्रों के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व के दिन स्नान, होम, जप, दान आदि का अनंत फल मिलता है, इसलिए हिंदू संस्कृति में इसका खास महत्व है। वहीं परशुराम के अवतार के अलावा यह भी माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन ही पीतांबरा, नर-नारायण और हयग्रीव ने भी अवतार लिया था।
स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाखशुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयंती को विशेष महत्व दिया जाता है। परशुराम जयंती होने के कारण इस तिथि में भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं, गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल, फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। मान्यता है कि इसी दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था। एक कथा के अनुसार परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद भी विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। उल्लेख है कि सीता स्वयंवर के समय परशुराम जी अपना धनुष बाण श्री राम को समर्पित कर संन्यासी का जीवन बिताने अन्यत्र चले गए। अपने साथ एक फरसा रखते थे तभी उनका नाम परशुराम पड़ा।
मेरी तरफसे आप सबको बहुत बहुत शुभकामनाएं । भगवान आपके सुखोंको , समृद्धि को अक्षय रखें और आपके दुःख दारिद्र्य का क्षय हो ।
Hitesh Karia
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